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कहाँ वो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए.....


कहाँ वो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

खुदा नही न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीं नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतम-इन है की पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के लिए
मरे तो गैर की गलियों में गुल-मोहर के लिए


--- दुष्यंत कुमार


[ मयस्सर = उपलब्ध/Available] , [दरख्त = पेड़/Tree ]
[मुनासिब = Suitable], [मुतम-इन = विषयवस्तु/content/भरे हुए ]

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