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ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयां अपना...


ज़िक्र उस परीवश का, और फिर बयां अपना,
बन गया रकीब आखिर था जो राजदान अपना;

मय वो क्यों बहुत पीते बज्म-ए-गाहिर में यारब़,
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना;

मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते,
अर्श़ से इधर होता काश के मकां अपना;

दें वो जिस कदर जिल्लत हम हंसी में टालेंगे,
बारे आशना निकला उनका पासबान अपना;

दर्द-ए-दिल लिखूं कब तक? जाऊं उनको दिखला दूं,
उंगलियाँ फिगार अपनी खामा-खून चाकान अपना;

घिसते घिसते मिट जाता आप ने ????? बदला,
नांग-ए-सज्दाह से मेरे संग-ए-आस्तां अपना;

ता करे न गम्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को,
दोस्त की शिक़ायत में हम ने हम-ज़बां अपना;

हम कहाँ के दाना थे? किस हुनर में याक्ता थे?
बे-सबब हुआ 'गा़लिब' दुश्मन आसमां अपना;

--- मिर्जा ग़ालिब

फिगार: ज़ख्मी; खाम: अपरिपक्व; खामा-खून: ज़वां खून; चाकान: गिरता हुआ; दाना: अक्लमंद; याक्ता: अद्वितीय


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