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न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही....

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहां और भी बाकी हो तो ये भी न सही

खार-खार-ऐ-आलम-ऐ-हसरत-ऐ-दीदार तो है
शौक़ गुलाचीं-ऐ-गुलिस्तां-ऐ-तसल्ली न सही

मय परस्ताँ खुम-ऐ-मय मुंह से लगाए ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साकी न सही

नफ़ज़-ऐ-कैस के है चश्म-ओ-चराग-ऐ-सहारा
गर नहीं शमा-ऐ-सियाहखाना-ऐ-लैला न सही

एक हंगामे पे मौकूफ है घर की रौनक
नोह-ऐ-गम ही सही, नगमा-ऐ-शादी न सही

न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही

इशरत-ऐ-सोहबत-ऐ-खुबान ही गनीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ऐ-तबीई न सही

-- मिर्ज़ा ग़ालिब

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