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था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था....

था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था
खुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा-ऐ-ज़हूर था

पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा खुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहुत मैं भी दूर था

कल पाँव इक कासा-ऐ-सर पर जो आ गया
यक-सर वो इस्ताख्वान शिकस्तों में चूर था

कहने लगा के देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभी किसी का सर-ऐ-पुर-गुरूर था

था वो तो रश्क-ऐ-हूर-ऐ-बहिश्ती हमीं में 'मीर'
समझे न हम तो फ़हम का अपने कसूर था


--- मीर तक़ी 'मीर'

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