गुलशन की फ़क़त फूलों से नहीं, काँटों से भी ज़ीनत होती है।
जीने के लिए इस दुनिया में ग़म की भी ज़रूरत होती है।
ऐ वाइज़-ऐ-नादाँ करता है तू एक क़यामत का चर्चा।
यहाँ रोज़ निगाहें मिलाती हैं, यहाँ रोज़ क़यामत होती है।
वो पुर्शिश-ऐ-ग़म को आए हैं, कुछ कह न सकूँ चुप रह न सकूँ।
ख़ामोश रहूं तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है।
करना ही पडेगा ज़ब्त-ऐ-अलम पीने ही पड़ेंगे ये आंसू।
फरियाद-ओ-फुगाँ से ऐ नादाँ तौहीन-ऐ-मोहब्बत होती है।
जो आके रुके दामन पे 'सबा' वो अश्क नहीं हैं पानी है।
जो अश्क न छलके आंखों से उस अश्क की कीमत होती है।
--- सबा अफगानी
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