पत्थर के खुदा, पत्थर के सनम, पत्थर के ही इनसां पाए हैं
तुम शहर-ऐ-मोहब्बत कहते हो, हम जान बचाके आए हैं
बुतखाना समझते हो जिसको, पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं, बस शुक्र करो लौट आए हैं
हम सोच रहे हैं मुद्दत से, अब उम्र गुजारेंगे भी तो कहाँ
सेहरा में खुशी के फूल नहीं, शहरों में गमी के साए हैं
होंठों पे तबस्सुम हलका सा, आंखों में नमी सी है 'फाकिर'
हम अहल-ऐ-मोहब्बत पर अक्सर, ऐसे भी ज़माने आए हैं
--- सुदर्शन फाकिर
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